जिस देश में 1.25 अरब के लगभग आबादी निवास करती है और देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है, उस देश का किसान आज भी आत्महत्या करने को मजबूर है, तोह इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती हैं | जो किसान हमें अन्न उगाकर देता हैं , जो हमारा अन्नदाता हैं, ऐसी क्या मजबूरिया है की वही किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं | ये सब सरकारों की गलत नीतियों का नतीजा हैं | आजादी के 70 वर्षो के बाद भी किसान आत्महत्या करता हैं तो सरकार पूरी तरह से विफल हैं |
आजादी के बाद भी किसी प्रकार की भूमि एवं फसल प्रबंधन की बात देश के किसी कोने में दिखाई नहीं देती और तदर्थ आधार पर नीतियों और प्रबंधन का संचालन वे लोग करते हैं, जिन्हें इस क्षेत्र की कोई जानकारी नहीं होती। यदि राष्ट्रीय स्तर पर यह नीति बनाई जाए कि देश के अंदर विभिन्न जिंसों की कितनी खपत है और वह किस क्षेत्र में है, इसके अतिरिक्त भविष्य के लिए कितने भंडारण की आवश्यकता है? साथ ही, कितना हम निर्यात कर सकेंगे।
केन्द्र/राज्य सरकारों अथवा राज्यान्तर्गत गठित विभिन्न विकास प्राधिकरणों द्वारा भूमि अधिग्रहण की नीति में कृषि योग्य भूमि के मद्देनजर परिवर्तन किया जाना परमावश्यक है। औद्योगिक विकास, आधारभूत संरचना विकास व आवासीय योजनाओं हेतु ऐसी भूमि का अधिकरण किया जाना चाहिए जो कृषि योग्य नहीं है। ऊसर बंजर तथा जिसमें अत्यधिक कम फसल पैदावार होती है, ऐसी भूमि का अधिग्रहण हो। कृषि उपयोग में लाए जाने वाली भूमि का अधिग्रहण और उस पर निर्माण प्रतिबंधित कर देना चाहिए।
समस्या यह है कि किसान दिल्ली आ जाते हैं तब भी कोई नहीं सुनता, मीडिया में आ जाते हैं तब भी किसी को फर्क नहीं पड़ता. ऐसा नहीं है कि सरकार कुछ करने का दावा नहीं करती है, उसके तमाम दावों और योजनाओं और उनकी वेबसाइट के बाद भी खेती का संकट जहां तहां से निकल ही आता है. किसान फिर से जंतर-मंतर पर आ गए हैं. मध्यप्रदेश के मंदसौर से अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने किसान मुक्ति यात्रा निकाली, जो 6 राज्यों से होते हुए दिल्ली पहुंची है. इस यात्रा को देश के 150-200 से अधिक किसान संगठन अपना समर्थन दे रहे हैं. मंच पर किसान नेताओं के अलावा पहली बार आत्महत्या करने वाले किसानों के बच्चों ने भी अपनी व्यथा दिल्ली वालों को सुनाई. इस उम्मीद में कि दिल्ली के लोगों को सुनाई देती होगी |
इसके अलावा करीब 67 फीसदी महिलाओं ने कहा कि खेती से होने वाली आमदनी घर का खर्च चलाने के लिए नाकाफी होती है। इसमें हैरत की बात नहीं कि करीब 47 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके हिसाब से किसानों की स्थिति कुल मिलाकर ‘खराब’ है। इस सर्वेक्षण में किसानों की खेती छोडऩे की मंशा का उल्लेख तो है लेकिन वह कृषि से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ाना चाहते। जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार किसानों की संख्या में कमी आई है। वर्ष 1991 में देश में जहां 11 करोड़ किसान थे, वहीं 2001 में उनकी संख्या घटकर 10.3 करोड़ रह गई जबकि 2011 में यह आंकड़ा और सिकुड़कर 9.58 करोड़ हो गया। इसका अर्थ यही है कि रोजाना 2,000 से ज्यादा किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है।
भारत पीपल्स सेना पार्टी आम लोगो की पार्टी हैं, ये किसानो के हर मुद्दे में हर तकलीफ में उनके साथ कंधे से कन्धा मिलकर खड़ी हैं |